यज्ञ के दौरान कुंड के अंदर का तापमान 250 डिग्री सेंटीग्रेड से लेकर 600 डिग्री सेंटीग्रेड तक होता है| जड़ी बूटियों मे जो औषधीय तैलीय पदार्थ होते हैं, उनके वाष्पीकृत होने के लिए ताप मान 150 डिग्री सेंटीग्रेड से 300 डिग्री सेंटीग्रेड तक होता है| अत: यज्ञ मे होमी गयी जड़ी बूटियाँ जलने के पूर्व ही वाष्पीकृत हो जाती हैं. इसके साथ ही कार्बोहाइड्राटेस तथा सेलुलोस आदि जलने पर आक्सीजन के साथ मिलकर काफी मात्रा मे जल की वाष्प बनाते हैं | इसकी वजह से थाइमोल, यूजीनोल, पाइनीन, तर्पिनोल इत्यादि बनते हैं जो की वातावरण में फैलते हैं और उनकी सुगंध दूर तक महसूस की जा सकती है| ये पदार्थ एंटी माइक्रोबियल गतिविधियों में भी काफी सक्रिय होते हैं। ये बीमारी पैदा करने वाले वायुमंडल और विभिन्न सतहों जैसे सोफा, बिस्तर, कपड़े के पर्दे आदि पर मौजूद कीटाणुओं को मारते हैं तथा वातावरण को कीटाणु रोधक बनाते हैं।
घी के जलने से पाइर्युविक अल्डिहाइड, एसीटोन, ग्लिकसोल आदि पदार्थ बनते है. इस दौरान जो हाइड्रोकर्बोंस बनते हैं वो पुन: रासायनिक प्रतिक्रिया करते हैं और सूक्ष्म मात्रा में एथाइल अलकोहोल, मिथाइल अलकोहोल, फोर्मल्डिहाइड, असेटल्ड़िहाईड, फार्मिक एसिड, असेटिक एसिड इत्यादि पदार्थ बनते हैं. ये सभी पदार्थ किटाणु नाशक होते हैं अत: यज्ञ के पश्चात वायुमंडल को कीटाणु मुक्त करके शुद्ध करते हैं |
( Integrated Science of Yagya by Dr. Rajni Joshi)
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